Zenab rehan

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चौथा अध्याय




इन्हीं बातों का उत्तर आगे लिखा है। उसका मतलब यही है कि सृष्टि में अनेक प्रकार के कामों का बँटवारा गुणों के ही अनुसार बने स्वभाव के ही अनुकूल हुआ है। जिसके दिल-दिमाग, शरीर और इंद्रियों में जिस गुण की प्रधानता है उसी के अनुसार उसके कर्म होते हैं। ऐसी गुण विभिन्नता होने ही क्यों पाई इसका उत्तर भी यही है कि पहले जन्म के कर्मों के अनुसार ही सभी बातें होती हैं। जो जिस चीज का अभ्यास करेगा उसे वही याद आएगी और उधर ही वह झुकेगा। इसीलिए कहा गया है कि मरने के समय उससे पहले के अभ्यास के अनुसार जो बात, जो चीज याद आएगी उसी शरीर में उसी के अनुकूल वाली परिस्थिति में जन्म लेगा। इस तरह आगे बढ़ते जाएँगे। शुरू में क्यों ऐसा हुआ यह प्रश्न तो होता ही नहीं; क्योंकि संसार का शुरू न मान के इसे अनादि मानते हैं। यह ठीक है कि कर्मों और गुणों की सारी व्यवस्था भगवान के बिना नहीं हो सकती है। इसीलिए वही यह सब कुछ करते हैं। मगर न तो इसका फल ही वे भोगते और न इनसे परेशानी ही उठाते! क्योंकि उन्हें तो आत्मज्ञान है न? वह तो अपने को अकर्त्ता और अभोक्ता बेलाग - देखते हैं न? श्लोक में जो चातुर्वर्ण्य या चारों वर्णों की बात है यह दृष्टांत के रूप में भारत में उस समय प्रचलित चीज को ही खयाल करके है। असल में कर्मों के अनेक विभागों और उनकी व्यवस्था से ही मतलब है। श्लोक में कर्म शब्द पूर्व के या प्रारब्ध कर्म और आगे होने वाले कर्म - इन दोनों - का ही वाचक है। इसका पूरा विवरण कर्मवाद में मिलेगा।

चातुरर्व र्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।

तस्य क र्त्तार मपि मां वि द्धय्कर्त्तार मव्ययम्॥13॥

चारों वर्णों को मैंने ही गुणों और कर्मों के बँटवारे के अनुकूल ही बनाया है। (लेकिन) इनका बनाने वाला होता हुआ भी मैं निर्विकार और अकर्त्ता हूँ, ऐसा जान लो। 13।

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।

इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्य ते॥14॥

(क्योंकि) न तो मुझमें कर्म चिपकते ही हैं और न मुझे उन कर्मों के फलों की आकांक्षा ही है। (फिर मुझे इनसे ताल्लुक ही क्या? यही नहीं;) जो कोई दूसरा भी मुझे इसी तरह साक्षात्कार कर लेता है वह भी कर्मों से (हर्गिज) बँध नहीं सकता। 14।

यहाँ उत्तरार्द्ध में जो 'अभिजानाति' क्रिया है उसका पहले की ही तरह साक्षात्कार ही अर्थ है। इसीलिए तत्त्व की जगह 'अभि' शब्द उसमें जुटा है, जिससे उसका अर्थ होता है अच्छी तरह जानना। इसी को विज्ञान भी कहते हैं। अभिजानाति के ही अर्थ में अभिज्ञान बनता है, जिसका अर्थ है पहचान या परिचय करा देने वाला। शकुंतलावाली अँगूठी देखते ही दुष्यंत की आँखों के सामने उसकी मूर्ति नाच उठी। इसीलिए अभिज्ञान शाकुंतल में उसी अँगूठी को अभिज्ञान माना गया है। जो लोग ईश्वर के अकर्त्तृत्व और नि:स्पृहत्व का अपने ही भीतर साक्षात्कार करने लगे, अनुभव करने लगे, वह तो स्वयं ईश्वर ही हो गए। फिर उन्हें कर्मों का बंधन कैसा?

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि:।

कुरु कर्मैव तस्मा त्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम्॥15॥

(यही कारण है कि) मुक्ति चाहने वाले पुराने लोगों ने भी ऐसा ही समझ के कर्म किया था। इसीलिए तुम भी पुराने लोगों के द्वारा किए गए इस अत्यंत प्राचीन कर्म को ही करो। 15।

इस श्लोक में 'मुमुक्षुभि:' के साथ 'अपि' को जोड़ के यह अर्थ किया है कि मुमुक्षु या मुक्ति चाहने वाले लोगों ने भी कर्म किया था। इसका आशय यह है कि जो लोग पूर्ण आत्म ज्ञान वाले जीवन्मुक्त थे उनने तो किया ही था । मगर इस दशा की प्राप्ति की इच्छा या मोक्ष की कामनावालों ने भी किया था। इसलिए तुम्हें भी हर हालत में यही करना होगा, चाहे मुक्त हो, या मुमुक्षु - मोक्ष चाहने वाले। अब इसमें एक ही दिक्कत रह जाती है 'कि ऐसा ही समझ के' - 'एवं ज्ञात्वा' - का मेल दोनों अर्थों से कैसे खाएगा। ऐसा समझने के तो मानी हैं यही समझना कि न तो मुझमें कर्म लिपट सकते और न मुझे उनके फलों से कोई काम है। और मुक्त या आत्मज्ञानी भले ही ऐसा समझे और उसका समझना ठीक ही है। फिर भी जो मोक्ष की इच्छा वाला है वह ऐसा साक्षात्कार कैसे कर सकता है? यह तो उसके लिए असंभव है। इसीलिए उसके संबंध में इसका यही आशय है कि ऐसे साक्षात्कार को उद्देश्य करके ही उसने भी कर्म किया। ऐसा उद्देश्य तो ठीक ही है। उससे बंधन तो हर हालत में होगा ही नहीं।

अब यहाँ पर एक नई बात उठ खड़ी होती है। कृष्ण के दिल में यह खयाल आ सकता था कि कहीं ऐसा तो नहीं कि कर्म करो, कर्म करो यही बात रह-रह के कहने से अर्जुन समझ बैठे कि कृष्ण को कोई गर्ज है, तभी तो बार-बार ऐसा कहते रहते हैं, यहाँ तक कि जब तक जो बात पूछता भी नहीं हूँ तभी तक वह बात भी इस अभागे कर्म के बारे में कह डालते और चट कह बैठते हैं कि कर्म करो ही। यह समझना कोई अस्वाभाविक भी नहीं। खूबी तो यह थी कि कृष्ण एक तो बहुत बातें यों ही बोल गए। दूसरे बातें ही कह जाते तो भी एक बात थी। मगर वह तो कर्म करो, करो का तूफान-सा मचाये हुए थे। इसलिए शक-शुभे और ऐसे खयालों की गुंजाइश जरूर थी और पूरी थी।

इसी के साथ यह बात भी थी कि अब तक कर्म और उसके त्याग या संन्यास की बात आई जरूर थी और उसे कब मानना और कैसे मानना, कब नहीं मानना वगैरह बातें भी कही गई थीं जरूर। मगर कर्म और कर्म त्याग या उलटाकर्म - विकर्म - किस सूरत में कैसे होता है और क्यों, यह चीज अब तक कही गई न थी। यह बड़ी बात है। किन-किन हालतों में कैसे कर्म ही कर्म का त्याग या विकर्म बन जाएगा - क्योंकि अकर्म शब्द जो आगे आया है उसका कर्म त्याग और विकर्म - विपरीत कर्म - भी अर्थ है, इसीलिए 17वें श्लोक में विकर्म शब्द आया भी है - और किस दशा में कैसे अकर्म ही कर्म बन जाएगा, इसका जानना निहायत जरूरी था। नहीं तो कर्म का एक महत्त्वपूर्ण पहलू छूट ही जाता। इसलिए भी कृष्ण को आगे की बातें कहनी पड़ी हैं।

जो लोग ऐसा समझते हैं कि आगे के श्लोकों में कर्म और अकर्म की परिभाषा या उनके लक्षण लिखे हैं वह भूलते हैं। यदि यह बात होती तो बार-बार इन्हीं शब्दों का प्रयोग न करके कुछ और शब्द बोलते। तभी तो पता चलता कि कर्म यह है और अकर्म यह है। मगर कृष्ण ने तो ऐसा नहीं किया है। इसलिए यही मानना पड़ेगा कि उन्हें परिभाषा नहीं करनी है। किंतु यही बतलाना है कि जिसे आमतौर से लोग कर्म मानते हैं वही कर्म त्याग और विकर्म भी कैसे बन जाता है और जिन्हें अकर्म - कर्म त्याग या विकर्म - मानते हैं वही कर्म कैसे बन जाते हैं। यही वजह है कि पहले (16वें) श्लोक में प्रथमांत और द्वितीयांत कर्म तथा अकर्म बोलने के बाद और 18वें में ये बातें बताने के पूर्व 17वें में 'कर्मण:' 'अकर्मण:' और 'विकर्मण:' इन तीनों को षष्टयंत रखते हैं। इससे एक तो पहले या आगे के अकर्म शब्द से विकर्म भी लेना होगा यह अभिप्राय निकलता है। दूसरा यह कि इन तीनों के स्वरूप या लक्षण को न जान के इनके संबंध में ही कुछ जानना जरूरी है।

श्लोक में कवि शब्द का अर्थ है अत्यंत सूक्ष्म और भूत-भविष्य को भी देख सकने वाला। उसकी भीतरी आँखें ऐसी हैं कि गहन से गहन और बारीक से भी बारीक बातें देख सकें। वेदों में 'कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू:' शब्दों में परमात्मा को कवि कहा है।

असल में चौथे अध्यावय का निजी विषय यहीं से शुरू होता है।

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:।

ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥16॥

कर्म क्या है (और) अकर्म क्या है इस संबंध में अलौकिक विद्वानों को भी घपले में पड़ जाना पड़ा है। इसीलिए तुम्हें कर्म (की सारी बातें और बारीकियाँ) बता दूँगा जिन्हें जानकर गलती और बुराई से बच सकोगे। 16।

कर्मणो ह्यपि बो द्ध व्यं बो द्ध व्यं च विकर्मण:।

अकर्मणश्च बो द्ध व्यं गहना कर्मणो गति:॥17॥

कर्म के संबंध में भी बहुत कुछ जानना जरूरी है और विकर्म के संबंध में भी (इसी तरह) अकर्म - कर्म त्याग - के संबंध में भी अनेक बातें जानने की हैं। क्योंकि कर्म की बात बड़ी पेचीदा है। 17।

कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:।

स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्॥18॥

जो आदमी कर्म में ही अकर्म - कर्म त्याग और विकर्म - (भी) देखता है और अकर्म - कर्म त्याग एवं विकर्म - में ही कर्म (भी), वही सब लोगों में बुद्धिमान है और योगी है और वही सब कुछ कर सकता है। 18।

यहाँ कई बातें विचारणीय हैं। सबसे पहली बात तो यही है कि सीधे ढंग से यह हर्गिज नहीं मान लेना चाहिए कर्म के बराबर अकर्म ही देखना चाहिए या अकर्म में कर्म ही। आपातत: देखने से तो यही प्रतीत होता है कि यहाँ आलंकारिक विरोधाभास के रूप में ही गीता के सिद्धांत का वर्णन है। इसलिए विरुद्ध या उलटी ही बातें देखने का सिद्धांत इसमें होना चाहिए ऐसा ही मालूम होता है। मगर गीता तो अलंकार का ग्रंथ है नहीं। यह तो हमारे प्रतिदिन के व्यवहारों, हलचलों, संघर्षों एवं कर्मों के करने-न करने के दार्शनिक सिद्धांत बता के तत्संबंधी कायदे-कानून का संग्रह (Manual) जैसा ग्रंथ है। इसीलिए जो बातें बराबर होती हैं और जिन्हें व्यावहारिक या असली बातें कहते हैं उन्हें मिटा देने या भुला देने से तो गीता का काम चल सकता नहीं। तब तो यह कीचड़ में ही जा फँसेगी और इसका मूल्य भी न रह जाएगा। तब गीता वह चमकता हीरा न रह जाएगी जैसा मानी जाती है।

इस दृष्टि से देखने पर इस श्लोक का अर्थ ऐसा हो जाता है कि जो आदमी कर्म में कर्म तो देखता ही है, या यों कहिए कि कर्म को कर्म तो जानता-मानता हई; लेकिन उसमें अकर्म यानी कर्म का त्याग और विकर्म भी समझता है। इसी तरह जो अकर्म यानी कर्म के त्याग में भी कर्म का त्याग तो समझता ही है; मगर कर्म और विकर्म या विरोधी कर्म-निंदित कर्म-भी देखता है। ऐसे ही जो अकर्म यानी विकर्म या निषिद्ध कर्म को भी विकर्म तो मानता ही है; मगर उसे कर्म-त्याग और कर्म भी जानता है। वह सबों में बुद्धिमान है, वही युक्त या योगी है और वह बेधड़क कोई भी - सभी - कर्म कर सकता है, करता है। उसे कोई काम करने में खतरा तो नजर आता नहीं। फिर हिचक क्यों होगी? इस तरह आत्मज्ञानी या योगी की दृष्टि या नजर को कर्म के बारे में बहुत ही व्यापक बन जाने की बात इस श्लोक में कही गई है। निचोड़ यही है कि वह हमेशा यही मानता है कि कोई भी कर्म, जिसे व्यवहार, समाज या शास्त्र ने अनुमोदित किया है, कर्म भी हो सकता है, कर्म-त्याग भी और विकर्म, दुष्कर्म, या पाप भी। इसी तरह वह यह भी मानता है कि शास्त्री य या समाज-अनुमोदित कर्मों का त्याग भी त्याग तो रहता ही है। साथ ही साथ वह कर्म और विकर्म भी बन सकता है और विकर्म भी विकर्म होने के साथ ही कर्म या कर्म-त्याग हो जाता है, हो जा सकता है। मालूम होता है, कोई जादू-मंतर या करामात है जो इनके रूपों को बदल देती है अगर उसका प्रयोग किया जाए और अगर न किया जाए तो ये ज्यों के त्यों रह जाते हैं। कोई ऐसी जड़ी-बूटी, ऐसी औषधि है जिसे गीता ने बताया है।

अब इन तीनों का दृष्टांत ले सकते हैं। हल जोतने की बात लीजिए। एक हलवाहा ईमानदारी से हल चलाता है। यही उसका कर्म है। यह कर्म बना रहेगा जब तक वह मजदूरी या खेती-गृहस्थी के सफल होने के खयाल से ही यह काम करता रहेगा। मगर ज्योंही इन नतीजों या परिणामों - फलों - की परवाह उससे जाती रही; फलत: कर्माशक्ति या फलासक्ति छोड़ के वह हल चलाने लगा; जैसा कि किसी ने पकड़ के जड़भरत से हल चलवाया था। बस वही कर्म अकर्म बन गया। क्योंकि पहली - कर्म की - हालत में जो उसे डर-भय रहता था या काम बिगड़ने का खतरा रहता था वही तो इसे कर्म बनाए हुए था और वही अब जाता रहा। जिससे वह उस कर्म से बेलाग हो गया। लेकिन ऐसा भी होता है कि हमारे पड़ोसी से हमारी कटाकटी चल रही है। पद-पद पर हम उसे चिढ़ाना और दिक करना चाहते हैं। ऐसी ही हालत में उसकी खेती का ऐन मौका बिगड़ रहा है। हजार कोशिश करके भी वह न तो हल ही पा सकता है और न चलाई सकता है। फलत: तिलमिलाया हुआ है। ठीक उसी समय हमने अपना हल उठाया और उसे दिखा के बिना जरूरत ही हम किसी खेत में चलाने लगे। ऐसा भी हो सकता है कि पड़ोसी की जैसी ही अपनी जरूरत को पूरा करने के बजाए हमने उसके किसी प्रचंड शत्रु को ही जान-बूझ के अपना हल उसके सामने ही दिया। बस, यह हमारा विकर्म या दुष्कर्म हुआ। क्योंकि नाहक दूसरे का दिल दुखाना ही उसका लक्ष्य जो है।


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